Rooh ka ghar (रूह का घर)
शाम हुई पंछी चले घर मेरी रूह ने कहा चल तू भी अपने घर एक पता ज़हन में था चला गया हर रोज़ की तरह मेरी रूह बोली ये कहाँ ले आया मैं उस से बोला यही तो है तेरा घर वो बोली मुझे जाना है मेरे घर तू ले आया जाने किधर मैं फिर बोला जो मेरा घर वही तो है तेरा घर वो बोली नहीं ! चल में बताती हूँ तुझे अपना घर मैं रहती हूँ वहां जहां प्यार की हो दस्तक और खुशियों की हो महक जहाँ की फिज़ा में सुकून हो और चैन की साँस हो जिंदगी सरसब्ज़ हो और मौत का न हो डर क्या ले चलेगा मुझे? मैं निरुत्तर था नहीं वाकिफ़ था ऐसे किसी पते से वो मन मसोस कर मेरे साथ ही आ गई और मैं ढूंढ रहा हूँ उस पते को आज भी ..........